प्रकाश झा: बेबाक,हिम्मती,प्रगतिशील और समय-समाज के साथ न्याय करने वाले फ़िल्म निर्माता व निर्देशक

कई फिल्में हैं प्रकाश झा प्रोडक्शन की,जिनको देखकर आप कह उठते हैं-वाह! ये हुआ ??...

Oct 17, 2024 - 03:28
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कई फिल्में हैं प्रकाश झा प्रोडक्शन की,जिनको देखकर आप कह उठते हैं-वाह! ये हुआ सिनेमा। पेंटिंग में कैरियर बनाने वाले प्रकाश झा कैसे सामाजिक,राजनीतिक उथल पुथल को सिनेमा के कैनवास पर उतारने लगे,आइये जानते हैं एक यात्रा।

सिने जगत का एक दौर था जब 'अछूत कन्या','दो बीघा जमीन','दो आंखें बारह हाथ','मदर इंडिया' जैसी फिल्मों ने समाज को सोचने पर विवश कर दिया। वर्ग-संघर्ष व उच्च-निम्न की लड़ाई को बड़े ही भावनात्मक व संजीदे तरीके से सिने जगत ने पर्दे पर उतारा। लेखकों की पटकथा व उनके संवादों में हिंदुस्तान की शोषित,पीड़ित व वंचित समाज की आवाज़ साफ सुनाई देती थी। फिर रंगीन सिनेमा आया और इस रंगीनियत ने निर्देशकों व निर्माताओं को भी अपनी चकाचौंध में शामिल कर लिया। मगर दौर बदला,हिंदी फिल्म जगत में कुछ ऐसे निर्देशक व निर्माता फिर आये जिन्होंने सिनेमा की असली ताकत को न सिर्फ जाना बल्कि उनको हथियार बनाकर उनका बड़े ही सावधानी से प्रयोग भी किया। आज के समय मे प्रकाश झा को उस लाइन में सबसे आगे खड़ा किया जाना चाहिए।

लेखक,निर्देशक,निर्माता और साथ ही साथ एक मंझे हुए अभिनेता। मिट्टी और जड़ जमीन से जुड़े ग्लैमर से दूर प्रकाश झा अपने प्रारम्भिक दौर में  बिहार-झारखंड में रहे,उसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय। फ़िल्म व टेलीविजन संस्थान,पुणे से फ़िल्म सम्पादन की ट्रेनिंग ली और शुरुआती दिनों में ही बना डाली एक लघु फ़िल्म 'फेसेस आफ्टर द स्टॉर्म' । फ़िल्म पर बैन लग गया। मगर प्रकाश झा का विचार और उनका नज़रिया और अधिक खुल गया। समाज के दुख-दर्द ,अन्याय,सामाजिक भेदभावों को देख उनके अंदर जो उथल पुथल हुई,उसे उन्होंने बड़ी ही हिमाकत व धारा के विपरीत जाकर पर्दे पर दिखाना शुरू किया।

पहली फ़िल्म आई दामुल । फ़िल्म ने सर्वहारा-बुर्जुवा समाज के बीच बनी एक बड़ी खाई को स्पष्ट दिखाया। लोकतंत्र में ताकत सिर्फ़ उसके पास है,जो तंत्र में है। वह तंत्र के मंत्र से और पूंजी की ताकत से क्या कुछ नही खरीद सकता? आज के दौर में ऐसी अव्यवस्था साफ झलकती है। जिसे प्रकाश झा ने आज से करीब तीन दशक से पहले ही दिखा दिया। उनकी फिल्में दूरगामी असर छोड़ने वाली फिल्में होती हैं। जो अन्याय,अत्याचार व असमानता की ख़िलाफ़त से भरी होती है।

चक्रव्यूह, मृत्यदंड,गंगाजल,जयगंगाजल,सत्याग्रह,राजनीति,आरक्षण और आश्रम (सीरीज) ने सिनेमा का अलग ही रूपक प्रस्तुत किया। प्रकाश झा की दूरगामी सोच यह भली भांति जानती है,कि सिनेमा की ताकत क्या है? जो पहेलियां लोकतंत्र में रहकर नेता व शासन के लोग नही सुलझा पाए,प्रकाश झा ने उनको फिल्मों के जरिये एक राह तलाशने का रास्ता दिया।

काफ़ी दिनों बाद प्रकाश झा फिर उसी तरह के सिनेमा की वापसी कर रहे हैं। आने वाली उनकी फिल्म मट्टो की साइकिल उसका ताज़ा व सशक्त उदाहरण है। ठाट बात से दूर,समसामयिक मुद्दों व समस्याओं को पर्दे पर दिखाने वाले प्रकाश झा हिंदी फिल्म जगत में नया अध्याय लिखने वाले फिल्मकार हैं। उनकी लेखनी व उनके निर्माण में समाज की झलक साफ देखी जा सकती है।

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