आजादी के लिए लड़ने वाले ए के हंगल को रहना पड़ा था 3 साल कराची जेल में, आखिरी सांस तक की एक्टिंग
जय-वीरू की जोड़ी हो या गब्बर सिंह या फिर ठाकुर या बसंती, 1975 में आई फिल्म 'शोले' का हर एक किरदार ऐसा था, जिसे आज भी भुलाया नहीं जा सका है. इस फिल्म में एक कैरेक्टर रहीम चाचा का भी था, जिनका डायलॉग 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई' काफी फेमस रहा. इस किरदार को लेजेंडरी एक्टर ए.के. हंगल ने निभाया था. उनकी पुण्यतिथि के मौके पर दिग्गज अभिनेता के इन तमाम उपलब्धियों से हम आपको रूबरू करवाएंगे. 52 साल की उम्र में रखा सिनेमाई जगत में पहला कदम दिग्गज अभिनेता का पूरा नाम अवतार किशन हंगल था, जो भारतीय सिनेमा के एक ऐसे दिग्गज कलाकार थे, जिन्होंने अपनी सादगी, संवेदनशील अभिनय और गहरी आवाज से लाखों दर्शकों के दिलों में जगह बनाई. 1 फरवरी 1914 को सियालकोट में जन्मे हंगल न केवल एक शानदार अभिनेता थे, बल्कि एक स्वतंत्रता सेनानी और रंगमंच कलाकार भी थे. दरअसल, अवतार किशन हंगल फिल्मों में आने से पहले एक स्वतंत्रता सेनानी थे और शुरुआती दिनों में वह एक दर्जी का काम करते थे लेकिन 1929 से 1947 के बीच भारत की आजादी की लड़ाई में भी सक्रिय रहे. उन्हें कराची की जेल में तीन साल तक कैद रहना पड़ा. किताब 'लाइफ एंड टाइम्स ऑफ ए.के. हंगल' में उनके जीवन के अनछुए पहलुओं का जिक्र भी है, इसके अनुसार, उनके पिता के करीबी दोस्त ने उन्हें दर्जी बनने की सलाह दी थी. इसके बाद हंगल ने इंग्लैंड के एक कुशल दर्जी से यह कला भी सीखी थी. 52 साल की उम्र में उन्होंने फिल्म 'तीसरी कसम' सेअपने फिल्मी करियर की शुरुआत की जिसमें उन्होंने राज कपूर के बड़े भाई का किरदार निभाया और इसके बाद उन्होंने 250 से अधिक फिल्मों में काम किया. 'शोले' में उनके 'रहीम चाचा' के किरदार और 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई' जैसे डायलॉग ने उन्हें सिने प्रेमियों के बीच एक अलग पहचान दिलाई. हंगल की बेहतरीन फिल्में उन्होंने 1966 से 2005 तक लगभग 250 हिंदी फिल्मों में काम किया, जिनमें 'शोले' (1975), 'नमक हराम', 'आंधी', 'बावर्ची', 'लगान' (2001) और 'शरारत' (2002) जैसी फिल्में शामिल हैं. राजेश खन्ना के साथ उन्होंने 16 फिल्मों में काम किया, जिनमें 'आप की कसम', 'अमर दीप', 'कुदरत' और 'सौतेला भाई' शामिल हैं. उनकी खासियत थी कि वह ज्यादातर सकारात्मक किरदारों जैसे पिता, चाचा, या बुजुर्ग की भूमिका में नजर आए, लेकिन 'प्रेम बंधन' और 'मंजिल' जैसे कुछ नकारात्मक किरदारों में भी उनकी अदाकारी यादगार रही. 2001 में 'लगान' में शंभू काका और 2012 में उनकी आखिरी फिल्म 'कृष्णा और कंस' में उग्रसेन की आवाज के लिए उनकी काफी प्रशंसा हुई थी. आखरी दम तक नहीं छोड़ा अपने किरदारों का साथ फिल्मों के अलावा हंगल ने दूरदर्शन पर भी काम किया. उनकी आखिरी टीवी उपस्थिति 2012 में 'मधुबाला– एक इश्क एक जुनून' में एक कैमियो के रूप में थी, जो भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे होने की श्रद्धांजलि थी. हंगल ने बढ़ती उम्र के बावजूद सिनेमा को नहीं छोड़ा और आखिरी दम तक अपनी अदाकारी से लोगों के दिलों पर राज करते रहे. तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने ए.के. हंगल को 2006 पद्म भूषण अवॉर्ड से सम्मानित किया था. उन्होंने 26 अगस्त 2012 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन उनकी सादगी, देशभक्ति, और अभिनय के प्रति समर्पण से आज भी वो लोगों के जहन में ज़िंदा हैं. उनके इन्हीं गुणों के वजह से हिंदी सिनेमा में उन्हें विशेष स्थान भी मिला.

जय-वीरू की जोड़ी हो या गब्बर सिंह या फिर ठाकुर या बसंती, 1975 में आई फिल्म 'शोले' का हर एक किरदार ऐसा था, जिसे आज भी भुलाया नहीं जा सका है. इस फिल्म में एक कैरेक्टर रहीम चाचा का भी था, जिनका डायलॉग 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई' काफी फेमस रहा. इस किरदार को लेजेंडरी एक्टर ए.के. हंगल ने निभाया था. उनकी पुण्यतिथि के मौके पर दिग्गज अभिनेता के इन तमाम उपलब्धियों से हम आपको रूबरू करवाएंगे.
52 साल की उम्र में रखा सिनेमाई जगत में पहला कदम
दिग्गज अभिनेता का पूरा नाम अवतार किशन हंगल था, जो भारतीय सिनेमा के एक ऐसे दिग्गज कलाकार थे, जिन्होंने अपनी सादगी, संवेदनशील अभिनय और गहरी आवाज से लाखों दर्शकों के दिलों में जगह बनाई.
1 फरवरी 1914 को सियालकोट में जन्मे हंगल न केवल एक शानदार अभिनेता थे, बल्कि एक स्वतंत्रता सेनानी और रंगमंच कलाकार भी थे. दरअसल, अवतार किशन हंगल फिल्मों में आने से पहले एक स्वतंत्रता सेनानी थे और शुरुआती दिनों में वह एक दर्जी का काम करते थे लेकिन 1929 से 1947 के बीच भारत की आजादी की लड़ाई में भी सक्रिय रहे. उन्हें कराची की जेल में तीन साल तक कैद रहना पड़ा.
किताब 'लाइफ एंड टाइम्स ऑफ ए.के. हंगल' में उनके जीवन के अनछुए पहलुओं का जिक्र भी है, इसके अनुसार, उनके पिता के करीबी दोस्त ने उन्हें दर्जी बनने की सलाह दी थी. इसके बाद हंगल ने इंग्लैंड के एक कुशल दर्जी से यह कला भी सीखी थी.
52 साल की उम्र में उन्होंने फिल्म 'तीसरी कसम' सेअपने फिल्मी करियर की शुरुआत की जिसमें उन्होंने राज कपूर के बड़े भाई का किरदार निभाया और इसके बाद उन्होंने 250 से अधिक फिल्मों में काम किया. 'शोले' में उनके 'रहीम चाचा' के किरदार और 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई' जैसे डायलॉग ने उन्हें सिने प्रेमियों के बीच एक अलग पहचान दिलाई.
हंगल की बेहतरीन फिल्में
उन्होंने 1966 से 2005 तक लगभग 250 हिंदी फिल्मों में काम किया, जिनमें 'शोले' (1975), 'नमक हराम', 'आंधी', 'बावर्ची', 'लगान' (2001) और 'शरारत' (2002) जैसी फिल्में शामिल हैं. राजेश खन्ना के साथ उन्होंने 16 फिल्मों में काम किया, जिनमें 'आप की कसम', 'अमर दीप', 'कुदरत' और 'सौतेला भाई' शामिल हैं.
उनकी खासियत थी कि वह ज्यादातर सकारात्मक किरदारों जैसे पिता, चाचा, या बुजुर्ग की भूमिका में नजर आए, लेकिन 'प्रेम बंधन' और 'मंजिल' जैसे कुछ नकारात्मक किरदारों में भी उनकी अदाकारी यादगार रही. 2001 में 'लगान' में शंभू काका और 2012 में उनकी आखिरी फिल्म 'कृष्णा और कंस' में उग्रसेन की आवाज के लिए उनकी काफी प्रशंसा हुई थी.
आखरी दम तक नहीं छोड़ा अपने किरदारों का साथ
फिल्मों के अलावा हंगल ने दूरदर्शन पर भी काम किया. उनकी आखिरी टीवी उपस्थिति 2012 में 'मधुबाला– एक इश्क एक जुनून' में एक कैमियो के रूप में थी, जो भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे होने की श्रद्धांजलि थी. हंगल ने बढ़ती उम्र के बावजूद सिनेमा को नहीं छोड़ा और आखिरी दम तक अपनी अदाकारी से लोगों के दिलों पर राज करते रहे. तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने ए.के. हंगल को 2006 पद्म भूषण अवॉर्ड से सम्मानित किया था.
उन्होंने 26 अगस्त 2012 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन उनकी सादगी, देशभक्ति, और अभिनय के प्रति समर्पण से आज भी वो लोगों के जहन में ज़िंदा हैं. उनके इन्हीं गुणों के वजह से हिंदी सिनेमा में उन्हें विशेष स्थान भी मिला.
What's Your Reaction?






