गजलों का वो शहजादा जो साज से रच देता था जज्बात, निधन के 30 साल बाद मिला फिल्मफेयर अवॉर्ड

The Legacy of Madan Mohan: जब सुर किसी जादू की तरह दिल में उतरें और हर धुन में कुछ खास एहसास हो, तो समझ लीजिए वह संगीत मदन मोहन का है. 14 जुलाई, 1975 को हिंदी सिनेमा ने एक ऐसे जादूगर को खो दिया, जिसने अपनी धुनों से गीतों को अमर करने के साथ-साथ लाखों दिलों में भावनाओं का समंदर उड़ेल दिया. मदन मोहन, जिन्हें लता मंगेशकर 'मदन भैया' और 'गजलों का शहजादा' कहती थीं, वह एक फौजी से लेकर संगीत के शिखर तक पहुंचने वाले अनमोल रत्न थे. उनकी धुनों में शामिल 'लग जा गले' की उदासी हो या 'कर चले हम फिदा' का जोश, आज हर सांस में बसती हैं. उनकी पुण्यतिथि पर आइए, उस संगीतकार को याद करें, जिसने सुरों को आत्मा और गीतों को जज़्बातों का रंग दिया. एक तारीख जो केवल याद नहीं, श्रद्धांजलि भी है 14 जुलाई सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि उस संगीत सम्राट को याद करने का दिन है, जिसने हिंदी फिल्म संगीत को भावनात्मकता और रूहानियत का अद्भुत संगम दिया. मदन मोहन की पहचान यूं तो एक संगीतकार के तौर पर है, लेकिन वह इससे कहीं बढ़कर थे; वे एक भावना के रचयिता थे जो हर गीत को सिर्फ धुन नहीं, एक जीवंत अनुभव बना देते थे. उन्होंने सुरों को महज मनोरंजन नहीं, अंतरात्मा की आवाज बना दिया, चाहे वो मोहब्बत की मासूमियत हो, विरह का दर्द हो या देशभक्ति का जुनून. उनकी धुनें हर भाव को संवेदना की सच्ची परिभाषा देती हैं. 14 जुलाई 1975 को भारतीय सिनेमा की सुरमयी दुनिया से एक ऐसा सितारा बुझ गया, जिसकी रोशनी आज भी कानों से होते हुए दिलों तक पहुंचती है. मदन मोहन का पूरा नाम मदन मोहन कोहली था. वह एक सैनिक, एक रेडियो कलाकार और फिर हिंदी सिनेमा के सबसे रुहानी संगीतकारों में से एक थे. "मदन मोहन: अल्टीमेट मेलोडीज" में उनकी जिंदगी के पन्नों को पलटा गया है. उनके जन्म से लेकर जिंदगी के अहम पड़ावों का जिक्र है. बगदाद में जन्मा भारतीय संगीत का रत्न मदन मोहन का जन्म 25 जून 1932 को बगदाद में हुआ.शुरुआती शिक्षा लाहौर, फिर मुंबई और देहरादून में हुई. 1943 में वह द्वितीय लेफ्टिनेंट के रूप में भारतीय सेना से जुड़े और द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक सेवा की. लेकिन उनकी आत्मा का संगीत से रिश्ता कहीं गहराई से बंधा था. 1946 में उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ में कार्यक्रम सहायक के रूप में काम करना शुरू किया, जहां उस्ताद फैयाज खान और बेगम अख्तर जैसे दिग्गजों के संपर्क ने उनके भीतर का संगीतकार जाग्रत किया. 1948 में मुंबई वापसी के बाद उन्होंने एसडी बर्मन और श्याम सुंदर जैसे संगीत निर्देशकों के सहायक के रूप में काम किया, लेकिन बतौर स्वतंत्र संगीतकार उनकी असली पहचान बनी 1950 की फिल्म 'आंखें' से. इसके बाद उनका सफर कभी थमा नहीं. लता मंगेशकर की आवाज के साथ उन्होंने जो रचनाएं कीं, वह आज भी अमर गीतों की श्रेणी में आती हैं. लता उन्हें 'मदन भैया' कहकर बुलाती थीं और उन्हें गजलों का शहजादा कहती थीं. मदन मोहन के सबसे पसंदीदा गायक थे मोहम्मद रफी. 'लैला मजनूं' जैसी फिल्म में जब किसी ने किशोर कुमार की सिफारिश की, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया, 'मजनूं की आवाज तो सिर्फ रफी साहब की हो सकती है.' नतीजा यह हुआ कि यह फिल्म म्यूजिकल हिट बन गई और रफी की आवाज ऋषि कपूर की पहचान. वो गीत जो समय को पार कर दिल में बस गए कुछ गीत ऐसे होते हैं जो समय की सीमाओं को पार कर, आज भी दिल को गहरे तक छू लेते हैं. 'लग जा गले...' (वो कौन थी, 1964) की मधुर धुन और लता मंगेशकर की सौम्य आवाज प्रेम और बिछोह की भावनाओं को एक साथ उकेरती है, मानो हर नोट में एक अनकहा वादा छिपा हो. 'आपकी नजरों ने समझा...' (अनपढ़, 1962) का रोमानी अंदाज और उसकी सादगी भरी धुन प्रेम की गहराई को व्यक्त करती है, जो सुनने वाले को एक अलग ही दुनिया में ले जाती है. 'कर चले हम फिदा...' (हकीकत, 1965) देशभक्ति का ऐसा जज्बा जगाता है कि हर शब्द में बलिदान और गर्व का मिश्रण महसूस होता है. वहीं, 'तुम जो मिल गए हो...' (हंसते जख्म, 1973) की मेलोडी प्रेम की जटिलताओं को उजागर करती है, जो सुनते ही दिल में एक मीठा दर्द जगा देती है. और 'वो भूली दास्तां...' (संजोग, 1961) की उदास धुन बीते हुए पलों की यादों को ताज़ा करती है, मानो कोई पुरानी किताब के पन्ने पलट रहे हों. इन गीतों की धुनें किसी कल्पनालोक की तरह हैं, जो आंखें नम भी करती हैं और दिल में एक अनमोल, मीठा दर्द भी भर देती हैं. ये गीत सिर्फ संगीत नहीं, बल्कि भावनाओं का एक ऐसा खजाना हैं जो हर पीढ़ी के दिल को छूता रहेगा. राजा मेंहदी अली खान, राजेन्द्र कृष्ण और कैफी आजमी, इन तीनों के साथ मदन मोहन की जुगलबंदी ने हिंदी सिनेमा को अमर गीत दिए. राजेन्द्र कृष्ण की कोमलता, राजा मेंहदी अली की भावनात्मक गहराई और कैफी आजमी की शायरी को मदन मोहन की धुनों ने परवाज दी. 14 जुलाई 1975 को मात्र 51 वर्ष की उम्र में मदन मोहन का देहांत हो गया, लेकिन उनके जाने के बाद भी उनकी संगीत-संपदा आगे जिंदा रही. 2004 में यश चोपड़ा ने फिल्म 'वीर जारा' में उनकी अप्रयुक्त धुनों को इस्तेमाल किया, जिन पर जावेद अख्तर ने नए बोल लिखे. 'तेरे लिए' और 'कभी ना कभी तो मिलोगे' जैसे गीतों ने फिर से मदन मोहन की आत्मा को जिंदा कर दिया. यही वजह है कि उन्हें इस फिल्म के गाने 'तेरे लिए' के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला. लता-मदन की जोड़ी थी संगीत की आत्मा लता मंगेशकर के बिना मदन मोहन अधूरे थे और मदन मोहन के बिना लता के करियर की परिभाषा अधूरी. लता उन्हें राखी बांधा करती थीं और हर बार उनकी धुनों को आवाज देने के लिए तैयार रहती थीं. आशा भोंसले की शिकायतें कि वे सिर्फ लता से गवाते हैं, भी इस बात का प्रमाण हैं कि यह जोड़ी सिनेमा इतिहास की सबसे आत्मीय साझेदारी थी. मदन मोहन ने लगभग 100 फिल्मों के लिए संगीत दिया. लेकिन संख्या नहीं, बल्कि उनकी धुनों की गुणवत्ता ही उन्हें कालजयी बनाती है. उन्होंने संगीत में सिर्फ सुर नहीं दिए, उन्होंने श्रोताओं को भावनाओं का अनुभव कराया&

Jul 13, 2025 - 23:30
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गजलों का वो शहजादा जो साज से रच देता था जज्बात, निधन के 30 साल बाद मिला फिल्मफेयर अवॉर्ड

The Legacy of Madan Mohan: जब सुर किसी जादू की तरह दिल में उतरें और हर धुन में कुछ खास एहसास हो, तो समझ लीजिए वह संगीत मदन मोहन का है. 14 जुलाई, 1975 को हिंदी सिनेमा ने एक ऐसे जादूगर को खो दिया, जिसने अपनी धुनों से गीतों को अमर करने के साथ-साथ लाखों दिलों में भावनाओं का समंदर उड़ेल दिया. मदन मोहन, जिन्हें लता मंगेशकर 'मदन भैया' और 'गजलों का शहजादा' कहती थीं, वह एक फौजी से लेकर संगीत के शिखर तक पहुंचने वाले अनमोल रत्न थे.

उनकी धुनों में शामिल 'लग जा गले' की उदासी हो या 'कर चले हम फिदा' का जोश, आज हर सांस में बसती हैं. उनकी पुण्यतिथि पर आइए, उस संगीतकार को याद करें, जिसने सुरों को आत्मा और गीतों को जज़्बातों का रंग दिया.

एक तारीख जो केवल याद नहीं, श्रद्धांजलि भी है

14 जुलाई सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि उस संगीत सम्राट को याद करने का दिन है, जिसने हिंदी फिल्म संगीत को भावनात्मकता और रूहानियत का अद्भुत संगम दिया. मदन मोहन की पहचान यूं तो एक संगीतकार के तौर पर है, लेकिन वह इससे कहीं बढ़कर थे; वे एक भावना के रचयिता थे जो हर गीत को सिर्फ धुन नहीं, एक जीवंत अनुभव बना देते थे.


उन्होंने सुरों को महज मनोरंजन नहीं, अंतरात्मा की आवाज बना दिया, चाहे वो मोहब्बत की मासूमियत हो, विरह का दर्द हो या देशभक्ति का जुनून. उनकी धुनें हर भाव को संवेदना की सच्ची परिभाषा देती हैं. 14 जुलाई 1975 को भारतीय सिनेमा की सुरमयी दुनिया से एक ऐसा सितारा बुझ गया, जिसकी रोशनी आज भी कानों से होते हुए दिलों तक पहुंचती है.

मदन मोहन का पूरा नाम मदन मोहन कोहली था. वह एक सैनिक, एक रेडियो कलाकार और फिर हिंदी सिनेमा के सबसे रुहानी संगीतकारों में से एक थे. "मदन मोहन: अल्टीमेट मेलोडीज" में उनकी जिंदगी के पन्नों को पलटा गया है. उनके जन्म से लेकर जिंदगी के अहम पड़ावों का जिक्र है.

बगदाद में जन्मा भारतीय संगीत का रत्न

मदन मोहन का जन्म 25 जून 1932 को बगदाद में हुआ.शुरुआती शिक्षा लाहौर, फिर मुंबई और देहरादून में हुई. 1943 में वह द्वितीय लेफ्टिनेंट के रूप में भारतीय सेना से जुड़े और द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक सेवा की. लेकिन उनकी आत्मा का संगीत से रिश्ता कहीं गहराई से बंधा था. 1946 में उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ में कार्यक्रम सहायक के रूप में काम करना शुरू किया, जहां उस्ताद फैयाज खान और बेगम अख्तर जैसे दिग्गजों के संपर्क ने उनके भीतर का संगीतकार जाग्रत किया.

1948 में मुंबई वापसी के बाद उन्होंने एसडी बर्मन और श्याम सुंदर जैसे संगीत निर्देशकों के सहायक के रूप में काम किया, लेकिन बतौर स्वतंत्र संगीतकार उनकी असली पहचान बनी 1950 की फिल्म 'आंखें' से. इसके बाद उनका सफर कभी थमा नहीं. लता मंगेशकर की आवाज के साथ उन्होंने जो रचनाएं कीं, वह आज भी अमर गीतों की श्रेणी में आती हैं. लता उन्हें 'मदन भैया' कहकर बुलाती थीं और उन्हें गजलों का शहजादा कहती थीं.

मदन मोहन के सबसे पसंदीदा गायक थे मोहम्मद रफी. 'लैला मजनूं' जैसी फिल्म में जब किसी ने किशोर कुमार की सिफारिश की, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया, 'मजनूं की आवाज तो सिर्फ रफी साहब की हो सकती है.' नतीजा यह हुआ कि यह फिल्म म्यूजिकल हिट बन गई और रफी की आवाज ऋषि कपूर की पहचान.

वो गीत जो समय को पार कर दिल में बस गए

कुछ गीत ऐसे होते हैं जो समय की सीमाओं को पार कर, आज भी दिल को गहरे तक छू लेते हैं. 'लग जा गले...' (वो कौन थी, 1964) की मधुर धुन और लता मंगेशकर की सौम्य आवाज प्रेम और बिछोह की भावनाओं को एक साथ उकेरती है, मानो हर नोट में एक अनकहा वादा छिपा हो. 'आपकी नजरों ने समझा...' (अनपढ़, 1962) का रोमानी अंदाज और उसकी सादगी भरी धुन प्रेम की गहराई को व्यक्त करती है, जो सुनने वाले को एक अलग ही दुनिया में ले जाती है. 'कर चले हम फिदा...' (हकीकत, 1965) देशभक्ति का ऐसा जज्बा जगाता है कि हर शब्द में बलिदान और गर्व का मिश्रण महसूस होता है. वहीं, 'तुम जो मिल गए हो...' (हंसते जख्म, 1973) की मेलोडी प्रेम की जटिलताओं को उजागर करती है, जो सुनते ही दिल में एक मीठा दर्द जगा देती है. और 'वो भूली दास्तां...' (संजोग, 1961) की उदास धुन बीते हुए पलों की यादों को ताज़ा करती है, मानो कोई पुरानी किताब के पन्ने पलट रहे हों. इन गीतों की धुनें किसी कल्पनालोक की तरह हैं, जो आंखें नम भी करती हैं और दिल में एक अनमोल, मीठा दर्द भी भर देती हैं. ये गीत सिर्फ संगीत नहीं, बल्कि भावनाओं का एक ऐसा खजाना हैं जो हर पीढ़ी के दिल को छूता रहेगा.

राजा मेंहदी अली खान, राजेन्द्र कृष्ण और कैफी आजमी, इन तीनों के साथ मदन मोहन की जुगलबंदी ने हिंदी सिनेमा को अमर गीत दिए. राजेन्द्र कृष्ण की कोमलता, राजा मेंहदी अली की भावनात्मक गहराई और कैफी आजमी की शायरी को मदन मोहन की धुनों ने परवाज दी.

14 जुलाई 1975 को मात्र 51 वर्ष की उम्र में मदन मोहन का देहांत हो गया, लेकिन उनके जाने के बाद भी उनकी संगीत-संपदा आगे जिंदा रही. 2004 में यश चोपड़ा ने फिल्म 'वीर जारा' में उनकी अप्रयुक्त धुनों को इस्तेमाल किया, जिन पर जावेद अख्तर ने नए बोल लिखे. 'तेरे लिए' और 'कभी ना कभी तो मिलोगे' जैसे गीतों ने फिर से मदन मोहन की आत्मा को जिंदा कर दिया. यही वजह है कि उन्हें इस फिल्म के गाने 'तेरे लिए' के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला.

लता-मदन की जोड़ी थी संगीत की आत्मा

लता मंगेशकर के बिना मदन मोहन अधूरे थे और मदन मोहन के बिना लता के करियर की परिभाषा अधूरी. लता उन्हें राखी बांधा करती थीं और हर बार उनकी धुनों को आवाज देने के लिए तैयार रहती थीं. आशा भोंसले की शिकायतें कि वे सिर्फ लता से गवाते हैं, भी इस बात का प्रमाण हैं कि यह जोड़ी सिनेमा इतिहास की सबसे आत्मीय साझेदारी थी.

मदन मोहन ने लगभग 100 फिल्मों के लिए संगीत दिया. लेकिन संख्या नहीं, बल्कि उनकी धुनों की गुणवत्ता ही उन्हें कालजयी बनाती है. उन्होंने संगीत में सिर्फ सुर नहीं दिए, उन्होंने श्रोताओं को भावनाओं का अनुभव कराया—जैसे धड़कते दिल की आवाज को सुर में ढाल दिया हो.

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