कांस फिल्म फेस्टिवल में ‘मंथन‘, रेड कार्पेट पर ' स्मिता का बेटा '
स्मिता पाटिल को गुजरे अड़तीस साल होने को हैं,मगर आज भी उनको देखना गर्व से भर �...
स्मिता पाटिल को गुजरे अड़तीस साल होने को हैं,मगर आज भी उनको देखना गर्व से भर देता है। शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने मंथन का रेस्टोरेशन कर उसे उच्च गुणवत्ता का बनाकर कांस फिल्म फेस्टिवल में पेश किया।
समय चल रहा है फ्रांस में आयोजित हो रहे 77 वें कांस फिल्म फेस्टिवल का। दुनिया भर के फिल्मी सितारों की दिली इच्छा होती है इस फिल्म फेस्टिवल में हिस्सा लेने और रेड कार्पेट पर चलने की। फैशन की दुनिया से लेकर अभिनय,निर्देशन से जुड़े लोगों के लिए यह महोत्सव काफी खास होता है। भारत के लिए इस बार यह फेस्टिवल न सिर्फ खास है बल्कि गर्वित करने वाला पल बन चुका है। अस्सी के दशक में बनी फिल्म ' मंथन ' को इस बार कांस क्लासिक कैटेगरी में स्पेशल स्क्रीनिंग के तौर पर दिखाया गया। जहां दिवंगत अभिनेत्री स्मिता पाटिल लोगों के बीच जिंदा हो उठीं।
स्मिता पाटिल को गुजरे अड़तीस साल होने को हैं,मगर आज भी उनको देखना गर्व से भर देता है। शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने मंथन का रेस्टोरेशन कर उसे उच्च गुणवत्ता का बनाकर कांस फिल्म फेस्टिवल में पेश किया। फिल्म की स्क्रीनिंग के बाद दर्शकों ने पांच मिनट तक लगातार तालियां बजाईं। स्मिता के अभिनय को किसी खांचे में नहीं बांधा जा सकता,मगर यह समझना जरूरी है कि स्मिता पाटिल की वो कौन सी खूबसूरती थी जो दशकों बाद भी गायब नहीं हुई है।
दौर कोई भी रहा हो,फिल्मों में ग्लैमर हमेशा से रहा है। मगर हमें यह भी मानना होगा कि लोगों ने ग्लैमर को एक खांचे में सीमित करके रख दिया था। खूबसूरती बनाई जाती थी,जिसके चलते असली खूबसूरती को दर्शक देख नहीं पाते थे और उन्होंने सुंदरता को आंकने का एक पैमाना बना लिया था। फिर एक दौर आया जब सुनहरे परदे पर आईं सांवली सलोनी स्मिता पाटिल। स्मिता का आना सिर्फ हिंदी सिनेमा की समृद्धि नहीं थी बल्कि मराठी और बांग्ला सिनेमा में भी उन्होंने अपने अभिनय की मिसाल कायम की। उन्हीं के अभिनय से सजी फिल्म थी - ' मंथन '।
फिल्म के परिचय संगीत में ही स्मिता दिख जाती हैं। एक बच्चे को गोदी में लिए,आंचल को मुंह में दबाए इस अभिनेत्री को पहली मरतबा देखकर आज की पीढ़ी यही कहेगी कि हीरोइन ऐसी थोड़ी न होती है। सही भी बात है कि स्मिता हीरोइन नहीं थी वो अभिनेत्री थीं। समाज की अभिनेत्री।
शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर का संबंध दक्षिणी राजस्थान राजघराने से भी है। इनके द्वारा कई पुरानी फिल्मों के पुनर्स्थापित प्रिंट तैयार किए हैं जिसे वे समय समय पर फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित करते रहते हैं। इस बार भी कांस फिल्म फेस्टिवल में उन्होंने अपनी संस्था फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन के नेतृत्व में मंथन फिल्म का पुनर्स्थापन कर ' मंथन टीम ' को रेड कारपेट पर चलने का सुनहरा मौका दिया है। 14 मई से 25 मई तक चलने वाले कांस फिल्म फेस्टिवल में मंथन की स्क्रीनिंग 17 मई को की गई, जिसमे फिल्म से जुड़े लोग मंच पर उपस्थित रहे।
फिल्म के निर्देशक श्याम बेनेगल स्वास्थ्य ठीक न होने की वजह से फेस्टिवल में नहीं पहुंच पाए, मगर जब नसीरुद्दीन शाह,रत्ना पाठक शाह, अभिनेत्री स्मिता पाटिल के बेटे प्रतीक बब्बर पाटिल रेड कारपेट पर मुस्कुराते हुए आगे बढ़े तो हर पल गर्व से भर देने वाला रहा। इस मौके पर स्मिता पाटिल की बहनें मान्या पाटिल सेठ और अनीता पाटिल, फिल्म निर्माता व पुनर्स्थापक शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर, भारत सरकार के सूचना मंत्रालय के सचिव संजय जाजू,भारत में श्वेत क्रांति के जनक डॉ. वर्गीस कुरियन की बेटी निर्मला कुरियन व गुजरात सहकारी दुग्ध मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड के प्रबंध निदेशक डॉ जयन मेहता भी उपस्थित रहे।
प्रतीक बब्बर पाटिल काफी खुश नजर आए। स्मिता की तरह मुस्कुराता चेहरा,आंखों में वही चमक और हमेशा कुछ नया करने की चाह लिए हुए प्रतीक फिल्म के चयनित होने के बाद से ही अपनी खुशी का इजहार लगातार करते दिखाई दिए। प्रतीक मात्र पंद्रह दिन के थे जब स्मिता पाटिल का साया उनपर से उठ गया था। मगर कैफ़ी आज़मी साहब ने कहा था कि भले ही स्मिता हमारे बीच जिस्मानी तौर पर नहीं हैं मगर उनका बेटा हमारे बीच है। प्रतीक लोगों की उम्मीद पर हमेशा खरे भी उतरते रहे हैं। उनकी फिल्म ' कोबाल्ट ब्लू ' को देख दर्शकों ने कहा कि मां की तरह बेटा भी सामाजिक मुद्दों को करीब से समझता है और बिना झिझक उसे परदे पर उतारता है।
फिल्म मंथन 1976 में रिलीज हुई थी। फिल्म में एक से बढ़कर एक कलाकार थे। गिरीश कर्नाड,अमरीश पुरी,कुलभूषण खरबंदा,मोहन आगाशे,नसीरुद्दीन शाह और स्मिता पाटिल तो थी ही। किसी को भी देख आपको यही लगेगा कि फिल्म का मुख्य नायक या नायिका यही है। मगर आपको बता दें कि यह फिल्म क्राउड फंडिंग करके बनाई गई थी। पांच लाख किसानों ने दो - दो रुपए का सहयोग कर इस फिल्म के निर्माण में महती योगदान दिया था। फिल्म दुग्ध सहकारी आंदोलन के प्रणेता डॉ.वर्गीस कुरियन के श्वेत क्रांति से प्रेरित थी। इसलिए फिल्म जगत में यह फिल्म किसी एक निर्माता द्वारा निर्मित नहीं बल्कि एक विशाल
जनसमूह द्वारा निर्मित फिल्म थी। फिल्म को श्याम बेनेगल और विजय तेंदुलकर ने मिलकर लिखा था।
स्मिता पाटिल का कांस फिल्म फेस्टिवल में दिखना उनके सशक्त अभिनय का परिचायक है। स्मिता के फैंस के लिए यह आयोजन त्यौहार जैसा है। लेखक,समीक्षक और फिल्म विशेषज्ञ एक बार फिर स्मिता पाटिल को अपनी लेखनी से याद कर रहे हैं। एक अभिनेत्री का सही मायनों में दर्शकों के बीच सदियों तक जिंदा रहना,इसी को कहते हैं कि वो हर समय हर दौर में अपने अभिनय से प्रासंगिक रहे।
हालांकि आज के समय में हिंदी सिनेमा में स्मिता जैसी अभिनेत्री बहुत कम हैं जो परदे से लेकर निजी जीवन में भी सामाजिक सरोकारों को समझने वाली हों। उन मुद्दों को जीवंत करने वाली, उस तबके की आवाज बनने वाली हों जिनपर हम आमतौर पर नज़रें नहीं डालते। प्रतीक बब्बर में उनके काफी अंश दिखाई देते हैं और वो इस उम्मीद पर खरा उतरेंगे,दर्शकों की उनके प्रति ऐसी आशा और अपेक्षा बरकरार है।
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