“जब दुनियां में आंखें खोली तो, सबसे पहले लाल रंग ही देखी। कैफी साहब का आठ फेमिली का कमरा था। आठ लोगों के लिए सिर्फ एक ही बाथरूम। दूसरे कमरे में पार्टी की मीटिंग…जब मैं छोटी थी तो कैफी आजमी साहब मुझे मदनपुरा के मजदूरों की रैली में ले जाते थे। मजदूर मुझे कंधे पर उठाते थे। चॉकलेट देते थे। तब मेरे जेहन में लाल झंडे का मतलब ‘पार्टी टाइम’ होता था। सच कहिए तो लाल रंग लोगों को जोड़ने में काम आता है। आज हम सबकी आवाजें बंद करने की कोशिशें हो रही हैं। मैं सबसे पहले एक स्त्री हूं। एक मां हूं, बेटी हूं, पत्नी हूं और तब एक मुसलमान भी हूं। लेकिन आज हमारी मुस्लिम वाली पहचान को ही आगे लाया जा रहा है, जबकि यह अधूरी पहचान है, बावजूद लोग इसे ही आगे लेकर आ रहे हैं। हम सब दाभोलकर, पानसारे, कुलबुर्गी का खून जाया नहीं होने देंगे। कला को सामाजिक बदलाव का माध्यम बनाएंगे। इसके लिए नौजवान पीढ़ी को जोड़ना होगा, तभी हमारा मकसद पूरा होगा। “
यह शबाना आजमी द्वारा इप्टा के एक कार्यक्रम के दौरान बोले गए भाषण का एक अंश है। इस छोटे से अंश से आप शाबान आजमी की जिंदगी व विचार को अच्छे से आंक सकते हैं। इन पंक्तियों में वह उस परिवेश के बारे में बताती है जिसे उन्होंने देखी है।वह यहीं तक चुप नहीं रहती हैं।बल्कि सी ए ए के खिलाफ एक रैली में अपने पिता कैफी आजनी की लिखी पक्तियां द्वारा आह्वान करती हैं:
सब उठो,मैं भी उठूं,तुम भी उठो ,
कोई खिड़की इस दीवार में खुल जाएगी।
इतना ही नही वो समय समय पर देश मे घट रही घटनाओं और खुल कर बोलती हैं। सिर्फ फिल्मों में ही नही बल्कि असल जिंदगी में भी वो एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और आंदोलनों में डट कर सामना भी करती हैं। स्त्री मुक्ति और उनकी आवाज़ बनकर शबाना हर मोर्चे पर खड़ी नज़र आती हैं।
शबाना आजमी कवि कैफ़ी आज़मी और अभिनेत्री शौकत आज़मी की बेटी हैं। सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए पांच बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार एवं पांच फिल्मफेयर पुरस्कार पाने वाली शबाना आजमी को 2012 में पद्म विभूषण से नवाजा गया।भारतीय सिनेमा में एक नई लहर थी जो अपनी गंभीर सामग्री और नव-यथार्थवाद के लिए जानी जाती है। यह लहर आज भले पर्दे पर ज्यादा न दिख रही हो,मगर यथार्थ में जमीन पर जरूर दिखाई देती है।
शबाना आजमी ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत वर्ष 1973 में श्याम बेनेगल की फिल्म ‘अंकुर’ से की थी।इस फिल्म की सफलता ने शबाना आजमी को बॉलीवुड में जगह दिलाने में अहम भूमिका निभाई।अपनी पहली ही फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुआ।फिल्म अकुंर के बाद 1983 से 1985 तक लगातार तीन सालों तक उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। अर्थ, खंडहर और पार जैसी फिल्मों के लिए उनके अभिनय को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया.अर्थ, निशांत, अंकुर, स्पर्श, मंडी, मासूम, पेस्टॅन जी में शबाना आजमी ने अपने अभिनय की अमिट छाप दर्शकों पर छोड़ी. इन फिल्मों के अलावा उन्होंने अमर अकबर अन्थोनी, शतरंज के खिलाडी, खेल खिलाडी का, हीरा और पत्थर, परवरिश, किसा कुर्सी का, कर्म, आधा दिन आधी रात, स्वामी, देवता, जालिम, अतिथि ,स्वर्ग-नरक, थोड़ी बेवफाई स्पर्श अमरदीप, बगुला-भगत, एक ही भूल हम पांच, अपने पराये, मासूम, लोग क्या कहेंगे, दूसरी दुल्हन गंगवा, कल्पवृक्ष, पार, कामयाब, द ब्यूटीफुल नाइट, मैं आजाद हूँ, इतिहास, मटरू की बिजली का मंडोला जैसी फिल्मों नें काम कर अपने अभिनय का लोहा मनवाया।
उनके पिता कैफी आज़मी मशहूर शायर और कवि थे।
उनकी माँ का नाम शौकत आजमी था, जोकि इंडियन थिएटर की आर्टिस्ट थीं। इसलिए जहां एक तरफ शबाना पर उनके पिता के विचारों का असर था वहीं मां से विरासत में मिली अभिनय-प्रतिभा को सकारात्मक मोड़ देकर शबाना ने हिन्दी फिल्मों में अपने सफर की शुरूआत की। शबाना आजमी की शादी हिंदी सिनेमा के मशहूर संगीतकार जावेद अख्तर से हुई है। आज उनके जन्म दिन पर उन्हीं के ये शब्द-
,’धार्मिक चरमपंथ से दूर रहने पर ही सच्ची कला का निर्माण होता है। भारतीयता का मतलब ही समावेशिता है।’
साभार- सोशल मीडिया से सुनील सिंह का लेख