फ़िल्म के बहाने सिनेमा की वापसी देखी जा सकती है। समय व समाज की चिंताओं,निराशाओं व आशाओं को सिनेमा के कैनवास पर उतारती फ़िल्म-मट्टो की साइकिल
सपने छोटे हों या बड़े। सपना हर इंसान देखना चाहता है और उसे पूरा करने की जद्दोजहद भी करता है। कुछ सपने उसकी अपनी आंखों के सामने पूरे होते हैं और कुछ टूट जाते हैं। मगर सपने जब टूटते हैं तो दर्द बराबर का होता है। उम्मीद और आशा लिए आधा हिंदुस्तान सुबह से शाम तक रोज एक सपने को बुनने निकलता है। कभी हंसता मुस्कुराता चेहरा लेकर घर वापस आता है तो कभी टूटी उम्मीद और निराशा लिए,मगर जीने की राह वो तलाशता रहता है। मट्टो के बहाने ऐसी ही कहानी बयां करती है एम.गनी लिखित,निर्देशित व प्रकाश झा अभिनित फ़िल्म ‘मट्टो की साइकिल’।
फ़िल्म को देखकर ऐसा लगता है कि सिनेमा का बड़े ही मज़बूती से और आज के दौर में बहुत सही समय पर प्रयोग किया गया है। फ़िल्म की पटकथा एक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांव की है,जहां ब्रज की मिठास है। मगर इस मीठी बोली वाली पट्टी में कुछ खट्टे मीठे सपने बुनते लोग भी हैं। जो हैं तो भारत के लोग,मगर व्यवस्था व तंत्र की ऐसी मार है उनपर कि वे अपने छोटे से सपने को भी पूरा करने में असमर्थ है। उनको नेताओं से झूठी आशा,प्रशासन से झूठी सांत्वना और देश से झूठी उम्मीद छोड़ कुछ नही मिलता। मट्टो का जीवन और जीवन को चलाने का संघर्ष आधे हिंदुस्तान का संघर्ष बयां करता है।
एक साइकिल,जो मट्टो की कमाई है,उसके रोजी रोटी को कमाने का एक मात्र साधन है। जिसकी सवारी करके वो रोज मज़दूरी करने शहर जाता है और हंसते गाते अपने घर को आता है। उसकी साइकिल अब पुरानी हो चली है। उसमें रोज रोज कुछ खराबी आ जाती है,जिससे उसको काम पर पहुंचने में देरी हो जाती है। उसे ठेकेदारों के ताने सुनने को मिलते हैं। मगर फिर भी वह अपनी साइकिल को नही छोड़ता। साइकिल के दो पहिये मानो मट्टो की दो बेटियों नीरज और लिम्का,मट्टो और उसकी पत्नी देवकी के जीवन के दो पहिये जैसे हों। यह साइकिल पूरे परिवार की उम्मीद है। कभी साइकिल की चेन खराब तो कभी साइकिल का स्टैंड। मट्टो के जीवन मे भी ऐसा बनना बिगड़ना लगा रहता है। दिन भर की कमाई में ही राशन-पानी का जुगाड़ और बचत करके कर्ज भरना। कल्लू मिस्त्री उसका अच्छा दोस्त है। वह मट्टो की मजबूरी समझता है। मट्टो एक एक रूपया बचाने वाला इंसान है। पचास रुपये के अनार के जूस के बदले 15 रूपये का चीकू लेकर ही वह अपनी बीमार पत्नी को खिलाता है। पत्नी देवकी भी अपने पति के संघर्ष में बराबर का सहयोग करती है। बड़ी बिटिया नीरज मोतियों की माला बनाकर उसे बेचकर अपने परिवार में आर्थिक योगदान करती है। लिम्का छोटी है,मगर मट्टो की दुलारी है। मट्टो भी एक सपना देखता है कि कब ये टूटी साइकिल छोड़ वो एक नई साइकिल लेगा। कब उससे जल्दी जल्दी शहर जाकर पैसा कमाकर अपनी बिटिया का ब्याह करेगा। अपनी संतोषी पत्नी देवकी के चेहरे पर कब वो चमक ला पायेगा। मगर ये सपना चकनाचूर हो जाता है जब उसकी साइकिल पर एक ट्रैक्टर चढ़ जाता है। पूरी साइकिल टूट जाती है,साइकिल के साथ जैसे मट्टो के सपने भी भरभराकर गिर जाते हैं। मगर वह आस नही छोड़ता…फिर उठ पड़ता है अपने सपने को पूरा करने के लिए….लेकिन क्या उसका सपना पूरा हो पाता है? अब इसके लिए तो फ़िल्म देखनी होगी।
आज़ादी के अमृत महोत्सव की गूंज में रोज विष पीता आधा भारत कहाँ है?आधे भारत की कहानी कहा है? यह आबादी क्या सिर्फ वोटबैंक है,या इनका कोई मज़बूत अस्तित्व भी है।
पटकथा की सशक्त शैली और अभिनेताओं का गंभीर अभिनय,इस फ़िल्म में जान फूंक दिया है। प्रकाश झा ने ब्रज की भाषा व गांवों के भावों को जिस तरीके से अपने अभिनय में उतारा है,वह काबिले तारीफ है। देवकी बनी अनिता चौधरी ने ग्रामीण महिला के हर एक सुख-दुख को अपने चेहरे के भाव व अभिनय से उतार दिया है। यह फ़िल्म किसी भी कोने से नकारात्मक नही,बल्कि इतनी वास्तविक कि लगता ही नही कि इसको लाइट,कैमरा,एक्शन के साथ पिक्चराइज किया गया है।
पुलकित फिलिप से जानदार स्क्रीनप्ले लिखा है। सम्वाद व उसकी कहन शैली ने पूरी फिल्म में लोगों को जोड़कर रखा है। फ़िल्म के ट्रेलर मात्र को देखने से आपकी आंखों में आंसू आ जाना स्वाभाविक है। पूरी फ़िल्म आपको शहर से खींचकर गांव ले जाएगी। स्टूडियो से निकालकर सच की झुग्गी झोपड़ी और अस्त व्यस्त,पिछड़े,अविकसित समाज मे ले जाएगी। जहां आपको दिखेगा, कि आधा भारत रोज कैसे जीता है? कैसे रोजी रोटी की जुगत में संघर्ष करता है और अपने परिवार की छोटी छोटी खुशियों को पूरा करने के लिए दिन रात मेहनत करता है।
मूलतः मथुरा के रहने वाले एम.गनी ने अपनी इस फ़िल्म के माध्यम से शोषित,वंचित व हाशिये के समाज के सुख-दुख-दर्द को बयां किया है। प्रकाश झा प्रोडक्शन से बनी यह फ़िल्म 16 सितम्बर को सिनेमा घरों में रिलीज होगी। आरोही शर्मा,डिम्पी मिश्रा,अनिता चौधरी का अभिनय देखने योग्य है। रिलीज से पहले ही यह फ़िल्म दो अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल के लिए चुनी जा चुकी है।
‘मट्टो की साइकिल’ में भरी सम्वेदना,एहसास,कश्मकश आपको झकझोर कर रख देगी। पिछले एक दशक में आने वाली फिल्मों में यह फ़िल्म कुछ हटकर बनाई गई है। ‘बॉयकॉट सिनेमा’ के इस समय मे प्रकाश झा मुट्ठी भर लोगों की आवाज न बनने के बजाय उस समाज की आवाज बने हैं जो लोकतंत्र में वर्षों से ‘बॉयकॉट’ होता चला आ रहा है।
फ़िल्म के कुछ सशक्त सम्वाद
‘मारी साइकल मा कछु न कछु टंटो हो जावे है ठेकेदार’
‘हम गरीब लोग हैं,जितना भी इज़्ज़त से मिल जाय वही बहुत है’
रिपोर्ट- विवेक रंजन