कहते हैं कि फिल्मे समाज का आईना होती हैं। पर कुछ लोगो का ये भी मानना है कि फिल्मो में जो होता हैं वही समाज ग्रहण करता हैं। यह एक ऐसा विवादित मुद्दा हैं जिसे समझ पाना कठिन हैं लेकिन फिल्मी दुनिया के कुछ ऐसे प्रतिभाशाली लेखक हैं जो इसे विस्तार से बताते हैं ।
हाल ही में हुए स्क्रीन राइटर असोसिएशन (SWA) के प्रेस कॉन्फ्रेंस पर वरिष्ठ लेखक विनय शुक्ला जी ने बड़ी ही सरलता से समाज की सोच और फिल्मो के असर के मेलजोल पर स्पष्ट किया कि ‘ सिनेमा कई बार समाज को दर्शाता है और यह सोचने की प्रक्रिया का दर्पण है। लेकिन वह प्रतिबिंब लोगों को सोचने को मिलता है और कई बार वहां से बदलाव आता है। उन्होंने कहा कि कुछ मामलों में समाज पर एक फिल्म अपना गहरा प्रभाव छोड़ती हैं जो एक बदलाव की वजह बनता हैं।
उन्होंने फिल्म दीवार का उदाहरण दिया, जिसमें अमिताभ बच्चन कहते हैं, ” मैं आज भी फेके हुए पैसे नही उठाता।” जी हां अमिताभ बच्चन के कहे हुए और सलीम-जावेद जी के लिखे हुए इस डायलॉग ने मध्यम और निचले वर्गीय लोगो की सोच को बदलकर रख दिया था। जहा एक फ़िल्म में यह पहली बार था कि गरीबों को एक आत्म सम्मान के साथ दिखाया गया था, जिसने देश के गरीबों के बीच एक बड़ी लहर पैदा की, जिन्होंने वापस जवाब देने के लिए सशक्त महसूस किया और अपने आत्मसम्मान के लिए लड़ने के लिए उन्हें साहस मिला था।